Monday, April 25, 2022

टूटेगा ही

टूटेगा ही, इतनी ताक़त थोड़ी  है,
दुख तो आख़िर दुख है, पर्वत थोड़ी है !

जीवन देकर ख़ुद ही ले ले  आखिर क्यों,
देने वाले की यह नीयत थोड़ी है !

सागर से धरती तक हलचल ही हलचल,
दुनिया में हर पल सब संयत थोड़ी है !

जीवन जीने का ही नाम तो है आख़िर,
जीवन ख़ुद में कोई आफ़त थोड़ी है ! 

स्थितियाँ ही कुछ ऐसी हैं वर्ना तो,
झुकना-थकना मन की आदत थोड़ी है ! 

धन-दौलत की होती है क़ीमत लेकिन,
जीवन से बढ़कर वह क़ीमत थोड़ी है।

-कमलेश भट्ट कमल

ज़िंदगी का ताप

ज़िंदगी का ताप लाएँगे कहाँ से, 
शेर में जान आप लाएँगे कहाँ से ? 

जिसको देखा और भोगा ही नहीं है,
ख़ुद में वह संताप लाएँगे कहाँ से ? 

मन का बौनापन नहीं देता दिखाई,
उसकी ख़ातिर नाप लाएँगे कहाँ से ? 

कितने सारे आतताई हैं यहाँ पर,
इतने सारे शाप लाएँगे कहाँ से ? 

आपके अंदर नहीं  पैवस्त  है जो,
उसकी मुख पर छाप लाएँगे कहाँ से ? 

कुछ तो खौले आपके भीतर भी वर्ना,
हौसलों की भाप लाएँगे कहाँ  से ?


-कमलेश भट्ट कमल

ज़रा-सा आदमी होना

ज़रा-सा आदमी होना ज़रा-सा देवता  होना,
कोई क्या छीन सकता है मेरा अपना भला होना !

उसे शाख़ों से पत्तों से जड़ों से भी निभाना है,
बहुत  आसान भी होता नहीं कोई  तना होना !

सँभल कर सीढ़ियाँ चढ़ना कि छूना नभ सँभल कर ही,
तमाम आँखों में चुभ जाता है थोड़ा-सा  बड़ा होना ! 

गुमान इतना है अपने जींस पर इंसान को लेकिन,
कहाँ वह जानता है पेड़-पौधों सा नया  होना। 

ज़रा-सा ही लचीलापन बचा लेता है आँधी से,
नहीं तो जानते हैं पेड़ भी तन कर खड़ा होना। 

अगर मुश्किल समय में काम ख़ुद के भी नहीं आए,
तो  फिर किस काम की है ढेर सारी संपदा होना।

-कमलेश भट्ट कमल

चलो माना

चलो  माना, बुरी उतनी नहीं दुनिया,
मेरे कहने से पर चलती नहीं दुनिया।   

हुए हैं ज़ुल्म जितने पहले दुनिया पर,
गई  सदियाँ  मगर  भूली नहीं दुनिया। 

हुई हैं तोड़ने की कोशिशें कितनी,
ग़नीमत है कभी टूटी नहीं दुनिया। 

ये लगता  था  हटाकर रख ही देंगे  पर, 
किसी से इंच भर खिसकी नहीं दुनिया। 

यही सच है कि दुनिया सिर्फ दुनिया है,
वो  ऐसी या कि है वैसी नहीं दुनिया। 

ये दुनिया ध्वंस से ही ख़त्म हो जाती,
अगर पल-पल नया रचती नहीं दुनिया।

-कमलेश भट्ट कमल

इतना तो है यक़ीन

 
इतना तो है यक़ीन लौटेगी,
कल की दुनिया हसीन लौटेगी।

वो ही लौटेगी कल फ़िज़ा फिरसे,
वैसी ही सरज़मीन लौटेगी।

ख़त्म होने से तो रही दुनिया,
है ये ख़ासी ज़हीन, लौटेगी।

ज़िंदगी ज़िंदगी ही रहनी है,
कितनी भी हो विलीन, लौटेगी।

ज़िंदगी में घुलेगी ख़ुश्बू फिर,
होके ताज़ातरीन लौटेगी।

पाँव ताकत से जिनपे टिक पाएँ,
फिर वो अपनी ज़मीन लौटेगी।

थक चुकी है अभी ये दुनिया, पर
कल ही बनकर मशीन लौटेगी।

कल भी थी बेहतरीन ही दुनिया,
होके  फिर बेहतरीन लौटेगी।
                   
-कमलेश भट्ट कमल

Monday, August 12, 2019

काटे हैं हमने होकर जो बदहवास, जंगल

काटे हैं हमने होकर जो बदहवास, जंगल,
उग आये हैं दिलों में वो आस-पास जंगल !

दिन-दिन गई हैं छीनी हरियालियाँ वनों की,
यूँ ही नहीं हैं गुमसुम बेहद उदास जंगल !

कुल्हाड़ियाँ न बढ़तीं आती हों इस तरफ ही,
हैरान हो लगाता अकसर कयास जंगल !

चारों तरफ फ़िज़ा में हैं विष-बुझी हवाएँ,
घोले कहाँ से लाकर उसमें मिठास जंगल !

ज़ख्मी तमाम तन है, छलनी है रोज़ सीना,
जीता है मन में लेकर कितनी खटास जंगल !

हम तार-तार करने में भूल ही गये हैं,
धरती के पर्वतों के भी हैं लिबास जंगल !

भरती है रंग उसमें हर पल नये नये-से
कुदरत के वास्ते है इक कैनवास जंगल !

अपनी ज़मीन से ही फिर-फिर नया उगेगा ,
जारी रखेगा जीने का हर प्रयास जंगल !

-कमलेश भट्ट कमल

Sunday, January 28, 2007

कुछ बहुत आसान

कुछ बहुत आसान, कुछ दुश्वार दिन
रोज़ लाता है नये किरदार दिन।

आज अख़बारों में कितना खूऩ है
कल सड़क पर था बहुत खूँख़्व़ार दिन।

पाप हो या जुल़्म हो हर एक की
हद का आता ही है आख़िरकार दिन।

रात ने निगला उसे हर शाम को
भोर में जन्मा मगर हर बार दिन।

दोस्ती है तो रहे वह उम्र भर
दुश्मनी हो तो चले दो-चार दिन।

-कमलेश भट्ट कमल