Sunday, January 28, 2007

कुछ बहुत आसान

कुछ बहुत आसान, कुछ दुश्वार दिन
रोज़ लाता है नये किरदार दिन।

आज अख़बारों में कितना खूऩ है
कल सड़क पर था बहुत खूँख़्व़ार दिन।

पाप हो या जुल़्म हो हर एक की
हद का आता ही है आख़िरकार दिन।

रात ने निगला उसे हर शाम को
भोर में जन्मा मगर हर बार दिन।

दोस्ती है तो रहे वह उम्र भर
दुश्मनी हो तो चले दो-चार दिन।

-कमलेश भट्ट कमल

किसे मालूम, चेहरे कितने

किसे मालूम, चेहरे कितने आख़िरकार रखता है
सियासतदाँ है वो, खुद़ में कई किरदार रखता है।

किसी भी साँचे में ढल जाएगा अपने ही मतलब से
नहीं उसका कोई आकार, हर आकार रखता है।

निहत्था देखने में है, बहुत उस्ताद है लेकिन
जेहऩ में वो हमेशा ढेर सारे वार रखता है।

ज़मीं तक है नहीं पैरों के नीचे और दावा है
वो अपनी मुट्ठियों में बाँधकर संसार रखता है ।

बचाने के लिए ख़ुद को, डुबो सकता है दुनिया को
वो अपने साथ ही हरदम कई मँझधार रखता है।

-कमलेश भट्ट कमल

रोशनी है, धुन्ध भी है

रोशनी है, धुन्ध भी है और थोड़ा जल भी है
ये अजब मौसम है जिसमें धूप भी बादल भी है।

चाहे जितना भी हरा जंगल दिखाई दे हमें
उसमें है लेकिन छुपा चुपचाप दावानल भी है।

हर गली में वारदातें, हर सड़क पर हादसे
ये शहर केवल शहर है या कि ये जंगल भी है।

एक–सा होता नहीं है जिन्दगी का रास्ता
वो कहीं ऊँचा, कहीं नीचा, कहीं समतल भी है।

खिलखिला लेता है, रो लेता है सँग–सँग ही शहर
मौत का मातम भी इसमें जश्न की हलचल भी है।

-कमलेश भट्ट कमल

बहुत मुश्किल है कहना

बहुत मुश्किल है कहना क्या सही है क्या गल़त यारो
है अब तो झूठ की भी, सच की जैसी शख्स़ियत यारो।

दरिन्दों को भी पहचाने तो पहचाने कोई कैसे
नज़र आती है चेहरे पर बड़ी मासूमियत यारो।

जिधर देखो उधर मिल जायेंगे अख़बार नफ़रत के
बहुत दिन से मोहब्बत का न देखा एक ख़त यारो।

वहाँ हर पेड़ काँटेदार ज़हरीला ही उगता है
सियासत की ज़मीं मे है न जाने क्या सिफ़त यारो।

तुम्हारे पास दौलत की ज़मीं का एक टुकड़ा है
हमारे पास है ख्व़ाबों की पूरी सल्तनत यारो।

-कमलेश भट्ट कमल

ख्व़ाब छीने, याद भी

ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली।

पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली।

दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली।

देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली।

इस तरह से दोस्ती सबसे निभाई उम्र ने
पहले तो बचपन चुराया फिर जवानी छीन ली।

-कमलेश भट्ट कमल

एक चादर-सी

एक चादर-सी उजालों की तनी होगी
रात जाएगी तो खुलकर रोशनी होगी।

सिर्फ वो साबुत बचेगी ज़लज़लों में भी
जो इमारत सच की इंर्टों से बनी होगी।

आज तो केवल अमावस है, अँधेरा है
कल इसी छत पर खुली-सी चाँदनी होगी।

जैसे भी हालात हैं हमने बनाये हैं
हमको ही जीने की सूरत खोजनी होगी।

बन्द रहता है वो ख़ुद में इस तरह अक्सर
दोस्ती होगी न उससे दुश्मनी होगी।

-कमलेश भट्ट कमल

प्यास से जो खुद़

प्यास से जो खुद़ तड़प कर मर चुकी है
वह नदी तो है मगर सूखी नदी है।

तोड़कर फिर से समन्दर की हिदायत
हर लहर तट की तरफ को चल पड़ी है।

असलहा, बेरोज़गारी और व्हिस्की
ये विरासत नौजवानों को मिली है।

जो नज़र की ज़द में है वो सच है, लेकिन
एक दुनिया इस नज़र के बाद भी है।

जुल़्म की हद पर भी बस ख़मोश रहना
ये कोई जीना नहीं, ये खुद़कुशी है।

-कमलेश भट्ट कमल

प्यार, नफ़रत या

प्यार, नफ़रत या गिला है, जानते हैं
आपकी नीयत में क्या है, जानते हैं।

अपनी तो कोशिश है सच ज़िन्दा रहे, बस
सच बयाँ करना सज़ा है, जानते हैं।

जुर्म से डरिए कि उसकी है सज़ा भी
सब किताबों में लिखा है, जानते हैं।

क़ायदों का इस क़दर पाबन्द है वो
जुल़्म़ भी बाक़ायदा है, जानते हैं।

जिसकी आँखों में कमी है रोशनी की
वह हमारा रहनुमा है, जानते हैं।

फिर भी हमको प्यार है इस जिन्दगी से
कहने को ये बुलबुला है, जानते हैं।

-कमलेश भट्ट कमल

दूध को बस दूध ही

दूध को बस दूध ही, पानी को पानी लिख सके
सिर्फ कुछ ही वक़्त की असली कहानी लिख सके।

झूठ है जिसका शगल, दामन लहू से तर-ब-तर
कौन है जो नाम उसका राजधानी लिख सके।

उम्र लिख देती है चेहरों पर बुढ़ापा एक दिन
कोई-काई ही बुढ़ापे में जवानी लिख सके।

उसको ही हक़ है कि सुबहों से करे कोई सवाल
जो किसी के नाम खुद़ शामें सुहानी लिख सके।

मुश्किलों की दास्ताँ के साथ ये अक्सर हुआ
कुछ लिखी कागज़ पे हमने, कुछ ज़बानी लिख सके।

मौत तो कोई भी लिख देगा किसी के भाग्य में
बात तो तब है कि कोई ज़िन्दगानी लिख सके।

-कमलेश भट्ट कमल

अपना सुख, अपनी चुभन

अपना सुख, अपनी चुभन कब तक चले
ख़ुद में ही रहना मगन कब तक चले।

जुल़्म पर हम चुप हैं, चुप हैं आप भी
देखना है ये चलन कब तक चले।

कोशिशें तो खत्म करने की हुईं
अब रही क़िस्मत वतन कब तक चले।

वो मरा था भूख से या रोग से
देखिए इस पर `सदन' कब तक चले।

जिस्म से चादर अगर छोटी है तो
जिस्म ढँकने का जतन कब तक चले।

जिनकी आँखों में बसी हों मंज़िलें
उनके पाँवों में थकन कब तक चले।

-कमलेश भट्ट कमल