काटे हैं हमने होकर जो बदहवास, जंगल,
उग आये हैं दिलों में वो आस-पास जंगल !
दिन-दिन गई हैं छीनी हरियालियाँ वनों की,
यूँ ही नहीं हैं गुमसुम बेहद उदास जंगल !
कुल्हाड़ियाँ न बढ़तीं आती हों इस तरफ ही,
हैरान हो लगाता अकसर कयास जंगल !
चारों तरफ फ़िज़ा में हैं विष-बुझी हवाएँ,
घोले कहाँ से लाकर उसमें मिठास जंगल !
ज़ख्मी तमाम तन है, छलनी है रोज़ सीना,
जीता है मन में लेकर कितनी खटास जंगल !
हम तार-तार करने में भूल ही गये हैं,
धरती के पर्वतों के भी हैं लिबास जंगल !
भरती है रंग उसमें हर पल नये नये-से
कुदरत के वास्ते है इक कैनवास जंगल !
अपनी ज़मीन से ही फिर-फिर नया उगेगा ,
जारी रखेगा जीने का हर प्रयास जंगल !
-कमलेश भट्ट कमल
उग आये हैं दिलों में वो आस-पास जंगल !
दिन-दिन गई हैं छीनी हरियालियाँ वनों की,
यूँ ही नहीं हैं गुमसुम बेहद उदास जंगल !
कुल्हाड़ियाँ न बढ़तीं आती हों इस तरफ ही,
हैरान हो लगाता अकसर कयास जंगल !
चारों तरफ फ़िज़ा में हैं विष-बुझी हवाएँ,
घोले कहाँ से लाकर उसमें मिठास जंगल !
ज़ख्मी तमाम तन है, छलनी है रोज़ सीना,
जीता है मन में लेकर कितनी खटास जंगल !
हम तार-तार करने में भूल ही गये हैं,
धरती के पर्वतों के भी हैं लिबास जंगल !
भरती है रंग उसमें हर पल नये नये-से
कुदरत के वास्ते है इक कैनवास जंगल !
अपनी ज़मीन से ही फिर-फिर नया उगेगा ,
जारी रखेगा जीने का हर प्रयास जंगल !
-कमलेश भट्ट कमल
1 comment:
जारी रखेगा जीने का हर प्रयास जंगल... बहुत सुन्दर !
manju mishra
www.manukavya.wordpress.com
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