Monday, August 12, 2019

काटे हैं हमने होकर जो बदहवास, जंगल

काटे हैं हमने होकर जो बदहवास, जंगल,
उग आये हैं दिलों में वो आस-पास जंगल !

दिन-दिन गई हैं छीनी हरियालियाँ वनों की,
यूँ ही नहीं हैं गुमसुम बेहद उदास जंगल !

कुल्हाड़ियाँ न बढ़तीं आती हों इस तरफ ही,
हैरान हो लगाता अकसर कयास जंगल !

चारों तरफ फ़िज़ा में हैं विष-बुझी हवाएँ,
घोले कहाँ से लाकर उसमें मिठास जंगल !

ज़ख्मी तमाम तन है, छलनी है रोज़ सीना,
जीता है मन में लेकर कितनी खटास जंगल !

हम तार-तार करने में भूल ही गये हैं,
धरती के पर्वतों के भी हैं लिबास जंगल !

भरती है रंग उसमें हर पल नये नये-से
कुदरत के वास्ते है इक कैनवास जंगल !

अपनी ज़मीन से ही फिर-फिर नया उगेगा ,
जारी रखेगा जीने का हर प्रयास जंगल !

-कमलेश भट्ट कमल